Historical Statement of Shaheed Bhagat Singh
दोस्तों और मेरे आदरणीय पाठकों, आज हम इस पोस्ट के माध्यम से आप सभी को शहीद भगत सिंह जी के दो कालजयी और ऐतिहासिक बयानों के बारे में बताना चाहेंगे:पहला बयान (First Statement) - Assembly में बम फेंकने के बाद 6 जून सन् 1928 को दिल्ली के Session Judge Mr. Leonard Middleton की अदालत में दिया गया शहीद सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त जी का बयान :
" हमारे ऊपर गंभीर आरोप लगाये गये हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपनी सफ़ाई में कुछ शब्द कहें। हमारे कथित अपराध के संबंध में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं:
(1) क्या वास्तव में असेम्बली में बम फेंके गये थे, यदि हां तो क्यों?
(2) नीचे की अदालत में हमारे ऊपर जो आरोप लगाये गये हैं, वह सही हैं या ग़लत?
पहले प्रश्न के पहले भाग के लिए हमारा उत्तर स्वीकारात्मक है, लेकिन तथाकथित चश्मदीद गवाहों ने इस मामले में जो गवाही दी, वह सरासर झूठ है। चूंकि हम बम फेंकने से इन्कार नहीं कर रहे हैं, इसलिए यहां इन गवाहों के बयानों की सच्चाई की परख भी हो जानी चाहिए। उदाहरण के लिए हम यहां बतला देना चाहते हैं कि सार्जेंट टेरी का यह कहना कि उन्होंने हममें से एक के पास से पिस्तौल बरामद की, एक सफ़ेद झूठ मात्र है। क्योंकि जब हमने अपने आप को पुलिस के हाथों सौंपा तो हम में से किसी के पास कोई पिस्तौल न थी। जिन गवाहों ने कहा है कि उन्होंने हमें बम फेंकते देखा था, वे झूठ बोलते हैं। न्याय तथा निष्कपट व्यवहार को सर्वोपरि मानने वाले लोगों को इन झूठी बातों से एक सबक लेना चाहिये।
पहले प्रश्न के दूसरे हिस्से का उत्तर देने के लिए हमें इस बमकांड जैसी ऐतिहासिक घटना के कुछ विस्तार में जाना पड़ेगा। हमने वह काम किस अभिप्राय से तथा किन परिस्थितियों के बीच किया, इसकी पूरी एवं खुली सफ़ाई आवश्यक है।
जेल में हमारे पास कुछ पुलिस अधिकारी आये थे। उन्होंने हमें बतलाया कि लार्ड इर्विन (Lord Irvin ने इस घटना के बाद ही असेम्बली के दोनों सदनों के सम्मिलित अधिवेशन में कहा है कि ‘यह विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष के खि़लाफ़ नहीं, वरन संपूर्ण शासन व्यवस्था के विरुद्ध था।’ यह सुनकर हमने तुरंत भांप लिया कि लोगों ने हमारे उद्देश्य को सही तौर पर समझ लिया है।
मानवता को प्यार करने में हम किसी से भी पीछे नहीं हैं। हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और हम प्राणिमात्र को हमेशा आदर की निगाह से देखते आये हैं। हम न तो बर्बरतापूर्ण उपद्रव करने वाले देश के कलंक हैं, जैसा कि सोशलिस्ट कहलाने वाले दीवान चमनलाल ने कहा है, और न ही हम पागल हैं, जैसा कि लाहौर के ‘ट्रिब्यून’ तथा कुछ अन्य समाचार पत्रों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है। हम तो केवल अपने देश के इतिहास, उसकी मौजूदा परिस्थिति तथा अन्य मानवोचित आकांक्षाओं के मननशील विद्यार्थी होने का विनम्रतापूर्वक दावा कर सकते हैं। हमें ढोंग तथा पाखंड से नफ़रत है।
यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा विद्वेष की भावना से नहीं किया है। हमारा उद्देश्य केवल उस शासन-व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था जिसके हर एक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं, वरन अपकार करने की उसकी असीम क्षमता भी प्रकट होती है। इस विषय पर हमने जितना विचार किया, उतना ही हमें इस बात का दृढ़ विश्वास होता गया कि वह केवल संसार के सामने भारत की लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था का ढिंढोरा पीटने के लिए ही क़ायम है और वह ग़ैरजि़म्मेदार तथा निरंकुश शासन का प्रतीक है।
जनता के प्रतिनिधियों ने कितनी ही बार राष्ट्रीय मांगों को सरकार के सामने रखा, परंतु उसने उन मांगों की सर्वथा अवहेलना करके हर बार उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया। सदन द्वारा पास किये गये गंभीर प्रस्तावों को भारत की तथाकथित पार्लियामेंट के सामने ही तिरस्कारपूर्वक पैरों तले रौंदा गया है।
दमनकारी तथा निरंकुश कानूनों को समाप्त करने की मांग करने वाले प्रस्तावों को हमेशा अवज्ञा की दृष्टि से ही देखा गया है और जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों ने सरकार के जिन कानूनों तथा प्रस्तावों को अवांछित एवं अवैधानिक बताकर रद्द कर दिया था, उन्हें केवल कलम हिलाकर ही सरकार ने लागू कर लिया है।
संक्षेप में, बहुत कुछ सोचने के बाद भी एक ऐसी संस्था के अस्तित्व का औचित्य हमारी समझ में नहीं आ सका जो बावजूद उस तमाम शानोशौकत के, जिसका आधार भारत के करोड़ों मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई है, केवल मात्र दिल को बहलाने वाली थोथी, दिखावटी और शरारतों से भरी हुई एक संस्था है। हम सार्वजनिक नेताओं की मनोवृत्ति को समझ पाने में भी असमर्थ हैं। हमारी समझ में नहीं आता कि हमारे नेतागण भारत की असहाय परतंत्रता की खिल्ली उड़ाने वाले इतने स्पष्ट एवं पूर्वनियोजित प्रदर्शनों पर सार्वजनिक संपत्ति एवं समय बरबाद करने में सहायक क्यों बनते हैं?
हम इन्हीं प्रश्नों तथा मज़दूर आंदोलनों के नेताओं की धरपकड़ पर विचार कर ही रहे थे कि सरकार ट्रेड डिस्प्यूट बिल लेकर सामने आयी। हम इसी संबंध में असेम्बली की कार्यवाही देखने गये। वहां मारा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि भारत की लाखों मेहनतकश जनता एक ऐसी संस्था से किसी बात की भी आशा नहीं कर सकती जो भारत के बेबस मेहनतकशों की दासता तथा शोषकों की गलाघोंटू शक्ति का हित चाहती है।
अंत में, वह कानून जिसे हम बर्बर एवं अमानवीय समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सरों पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत भूखे मज़दूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया। जिस किसी ने भी कमरतोड़ परिश्रम करने वाले मूल मेहनतकशों की हालत पर हमारी तरह सोचा है, वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा। बलिदान के बकरों की भांति शोषकों, और सबसे बड़ा शोषक स्वयं सरकार है, की बलिवेदी पर आये दिन होने वाली मज़दूरों की इन मूक कुर्बानियों को देख कर जिस किसी का दिल रोता है, वह अपनी आत्मा की चीत्कार की उपेक्षा नहीं कर सकता।
गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी-समिति के भूतपूर्व सदस्य स्वर्गीय श्री एस. आर. दास ने अपने प्रसिद्ध पत्र में अपने पुत्र को लिखा था कि इंग्लैंड की स्वप्न निद्रा भंग करने के लिए बम का प्रयोग आवश्यक है। श्री दास के इन्हीं शब्दों को सामने रखकर हमने असेंबली भवन में बम फेंके थे। हमने वह काम मज़दूरों की तरफ से प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिए किया था। उन असहाय मज़दूरों के पास अपने मर्मांतक क्लेशों को व्यक्त करने का और कोई साधन भी तो नहीं था। हमारा एकमात्र उद्देश्य था, ‘बहरे को सुनाना’ और उन पीडि़तों की मांगों पर ध्यान न देने वाली सरकार को समय रहते चेतावनी देना। हमारी ही तरह दूसरों की भी परोक्ष धारणा है कि प्रशांत सागर रूपी भारतीय मानवता की ऊपरी शांति किसी भी समय फूट पड़ने वाले एक भीषण तूफ़ान का द्योतक है। हमने तो उन लोगों के लिए सिर्फ़ ख़तरे की घंटी बजायी है, जो आने वाले भयानक ख़तरे की परवाह किये बग़ैर तेज़ रफ़्तार से आगे की तरफ भागे जा रहे हैं। हम लोगों को सिर्फ़ यह बतला देना चाहते हैं कि ‘काल्पनिक अहिंसा’ का युग अब समाप्त हो चुका है और आज की उठती हुई नयी पीढ़ी को उसकी व्यर्थता में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह गया है।
मानवता के प्रति हार्दिक सद्भाव तथा अमिट प्रेम रखने के कारण उसे व्यर्थ के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है और उस आने वाले रक्तपात को हम ही नहीं, लाखों आदमी आगे से ही देख रहे हैं।
ऊपर हमने ‘काल्पनिक अहिंसा’ शब्द का प्रयोग किया है। यहां पर उसकी व्याख्या कर देना भी आवश्यक है। आक्रमण-उद्देश्य से जब बल का प्रयोग होता है तो उसे हिंसा कहते हैं, और नैतिक दृष्टिकोण से उसे उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन जब उसका उपयोग किसी वैध आदर्श के लिए किया जाता है तो उसका नैतिक औचित्य भी होता है। किसी हालत में बल प्रयोग नहीं होना चाहिये, यह विचार काल्पनिक और अव्यावहारिक है। इधर देश में जो नया आंदोलन तेज़ी के साथ उठ रहा है, और उसकी पूर्व सूचना हम दे चुके हैं, वह गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, ग़ैरीवाल्डी और लेनिन के आदर्शों से ही प्रस्फुटित है और उन्हीं के पद चिद्दों पर चल रहा है। चूंकि भारत की विदेशी सरकार तथा हमारे राष्ट्रीय नेतागण दोनों ही इस आंदोलन की ओर से उदासीन लगते हैं और जान बूझकर उसकी पुकार की ओर से अपने कान बंद करने का प्रयत्न कर रहे हैं, अतः हमने अपना कर्तव्य समझा कि हम एक ऐसी चेतावनी दें जिसकी अवहेलना न की जा सके।
अभी तक हमने इस घटना के मूल उद्देश्य पर ही प्रकाश डाला है। अब हम अपना अभिप्राय भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि इस घटना के सिलसिले में मामूली चोटें खाने वाले व्यक्तियों तथा असेम्बली के किसी अन्य व्यक्ति के प्रति हमारे दिलों में कोई वैयक्तिक भावना नहीं थी। इसके विपरीत हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम मानव जीवन को अकथनीय पवित्रता प्रदान करते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के बजाय हम मानव जाति की सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे। हम साम्राज्यशाही की सेना के भाड़े के सैनिकों जैसे नहीं हैं जिनका नर हत्या ही काम होता है। हम मानव जीवन का आदर करते हैं और बराबर उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं। इसके बाद भी हम स्वीकार करते हैं कि हमने जान-बूझकर असेम्बली भवन में बम फेंका।
घटनाएं स्वयं हमारे अभिप्राय पर प्रकाश डालती हैं और हमारे इरादों की परख हमारे काम के परिणाम के आधार पर होनी चाहिए, न कि अटकल एवं मनगढ़ंत परिस्थितियों के आधार पर। सरकारी विशेषज्ञ की गवाही के विरुद्ध हमें यह कहना है कि असेम्बली भवन में फेंके गये बमों से वहां की एक ख़ाली बेंच को ही नुकसान पहुंचा और लगभग आधे दर्जन लोगों को मामूली सी खरोंचें भर आयीं। सरकारी वैज्ञानिकों ने कहा है कि बम बड़े ज़ोरदार थे और उनसे अधिक नुकसान नहीं हुआ, इसे एक अनहोनी घटना ही कहना चाहिये। लेकिन हमारे विचार से उन्हें वैज्ञानिक ढंग से बनाया ही ऐसा गया था। पहले तो दोनों बम बेंचों तथा डेस्कों की ख़ाली जगह में गिरे थे। दूसरे उनके फूटने की जगह से दो फीट पर बैठे हुए लोगों को भी, जिनमें मि. पी. आर. राउ, मि. शंकर राव तथा सर जार्ज शुस्टर के नाम उल्लेखनीय हैं, या तो बिलकुल ही चोटें न आयीं या मामूली मात्र आयीं। अगर उन बमों में ज़ोरदार पोटेशियम क्लोरेट और पिक्रिक एसिड भरा होता जैसा कि सरकारी विशेषज्ञ ने कहा है, तो उन बमों ने उस लकड़ी के घेरे को तोड़कर कुछ गज की दूरी पर खड़े हुए लोगों तक को उड़ा दिया होता और यदि उनमें कोई और भी शक्तिशाली विस्फोटक भरा होता तो निश्चय ही वे असेंबली के अधिकांश सदस्यों को उड़ा देने में समर्थ होते।
यही नहीं, यदि हम चाहते तो उन्हें सरकारी कक्ष में फेंक सकते थे जो कि विशिष्ट व्यक्तियों से खचाखच भरा था। या फिर उससे सर जान साइमन को अपना निशाना बना सकते थे जिसके अभागे कमीशन ने प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के दिल में उसकी ओर से गहरी नफरत पैदा कर दी थी और जो उस समय असेम्बली की अध्यक्ष दीर्घा में बैठा था। लेकिन इस तरह का हमारा कोई इरादा न था और उन बमों ने उतना ही काम किया जितने के लिये उन्हें तैयार किया गया था। यदि उससे कोई अनहोनी घटना हुई तो यही कि वे निशाने पर अर्थात निरापद स्थान पर गिरे। इसके बाद हमने इस कार्य का दंड भोगने के लिए अपने आप को जान-बूझकर पुलिस के हाथों समर्पित कर दिया। हम साम्राज्यवादी शोषकों को यह बतला देना चाहते थे कि मुट्ठी भर आदमियों को मारकर किसी आदर्श को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही दो नगण्य व्यक्तियों को कुचल कर राष्ट्र को दबाया जा सकता है।
हम इतिहास के इस सबक पर ज़ोर देना चाहते थे कि परिचय पत्र या परिचय चिद्द तथा वैस्टाइल (फ्रांस की कुख्यात जेल जहां राजनैतिक बंदियों को घोर यातनाएं दी जाती थीं) फ्रांस के क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने में समर्थ नहीं हुए थे, फांसी के फंदे और साइबेरिया की खानें रूसी क्रांति की आग को बुझा नहीं पायी थीं। तो फिर क्या अध्यादेश और सेफ़्टी बिल्स भारत में आज़ादी की लौ को बुझा सकेंगे? षडयन्त्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षडयंत्रों द्वारा नौजवानों को सज़ा देकर या एक महान आदर्श के स्वप्न से प्रेरित नवयुवकों को जेलों में ठूंस कर क्या क्रांति का अभियान रोका जा सकता है? हां, सामयिक चेतावनी से, बशर्ते कि उसकी उपेक्षा न की जाये, लोगों की जानें बचायी जा सकती हैं और व्यर्थ की मुसीबतों से उनकी रक्षा की जा सकती है। आगाही देने का यह भार अपने ऊपर लेकर हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है। क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है, अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।
समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी मज़दूरों को आज उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उसकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनिया भर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढंकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रह कर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति ज़रा ज़रा सी बातों के लिए लाखों का वारा न्यारा कर देते हैं।
यह भयानक असमानता और जबर्दस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिये जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक क़ायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित जनता एक भयानक खड्ड के कगार पर चल रहे हैं।
सभ्यता का यह प्रसार यदि समय रहते संभाला न गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्त्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व-शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज़ ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है, जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा और जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व-संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।
यह है हमारा आदर्श और इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर हमने एक सही तथा पुरज़ोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज़ न आयी तो क्रांति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंद कर आगे बढ़ते हुए उस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा-वर्ग के अधिनायक-तंत्र की स्थापना होगी। यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों के लिए मार्ग प्रस्तुत करेगा। क्रांति मानव जाति का जन्मजात अधिकार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है। जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है। इन आदर्शों के लिए और इस विश्वास के लिए हमें जो भी दंड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रांति की इस पूजावेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाये हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है। हम संतुष्ट हैं और क्रांति के आगमन की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं। इंक़लाब! जि़ंदाबाद! "
दूसरा बयान (Second Statement) - यह बयान High Court में Justice Ford और Justice Edison के समक्ष दिया गया :
" माई लार्ड, हम न वकील हैं, न अंग्रेज़ी के विशेषज्ञ और न हमारे पास डिग्रियां हैं, इसलिए हमसे शानदार भाषणों की आशा न की जाये। हमारी प्रार्थना है कि हमारे बयान की भाषा-संबंधी त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए उसके वास्तविक अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाये। दूसरे तमाम मुद्दों को अपने वकीलों पर छोड़ते हुए मैं स्वयं एक मुद्दे पर अपने विचार प्रकट करूंगा। यह मुद्दा इस मुक़दमे में बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा यह है कि हमारी नीयत क्या थी और हम किस हद तक अपराधी हैं?
यह बड़ा पेचीदा मामला है, इसलिए कोई भी व्यक्ति आपकी सेवा में विचारों के विकास की वह ऊंचाई प्रस्तुत नहीं कर सकता, जिसके प्रभाव में हम एक ख़ास ढंग से सोचने और व्यवहार करने लगे थे। हम चाहते हैं कि इसे दृष्टि में रखते हुए ही हमारी नीयत और अपराध का अनुमान लगाया जाये। प्रसिद्ध कानून-विशारद सालोमन के अनुसार किसी भी व्यक्ति को, उसके अपराधी उद्देश्यों को जाने बिना उस समय तक सज़ा नहीं मिलनी चाहिए, जब तक उसका कानून-विरोधी आचरण सिद्ध न हो। सेशन जज की अदालत में हमने जो लिखित बयान दिया था, वह हमारे उद्देश्य की व्याख्या करता था और इस रूप में हमारी नीयत की व्याख्या करता था। लेकिन सेशन जज महोदय ने कलम की एक ही नोंक से यह कहकर कि ‘आमतौर पर अपराध को व्यवहार में लाने वाली बात कानून के कार्य को प्रभावित नहीं करती और इस देश में कानूनी व्याख्याओं में कभी-कभार उद्देश्य और नीयत की चर्चा होती है’, हमारी सब कोशिशें बेकार कर दीं।
माई लार्ड, इन परिस्थितियों में सुयोग्य सेशन जज के लिए उचित था कि या तो अपराध का अनुमान परिणाम से लगाते या हमारे बयान की मदद से मनोवैज्ञानिक पहलू का फैसला करते, पर उन्होंने इन दोनों में से एक से भी काम न लिया।
पहली बात यह है कि असेम्बली में हमने जो दो बम फेंके, उनसे किसी भी व्यक्ति की शारीरिक या आर्थिक हानि नहीं हुई। इस दृष्टिकोण से जो सज़ा हमें दी गयी है, यह कठोरतम ही नहीं है, बदला लेने की भावना वाली भी है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाये, तो जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाये, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाय, तो किसी भी व्यक्ति के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नज़रों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति साधारण हत्यारे नज़र आयेंगे, सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर-जालसाज़ दिखायी देंगे और न्यायाधीशों पर भी क़त्ल करने का अभियोग लगेगा। इस तरह तो समाज व्यवस्था और सभ्यता, खून-ख़राबा, चोरी और जालसाजी बनकर रह जायेगी। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाये, तो किसी हुकूमत को क्या अधिकार है कि समाज के व्यक्तियों से न्याय करने को कहे? उद्देश्य की उपेक्षा की जाये तो हर धर्म प्रचारक झूठ का प्रचारक दिखायी देगा और हरेक पैगंबर पर अभियोग लगेगा कि उसने करोड़ों भोले और अनजान लोगों को गुमराह किया। यदि उद्देश्य को भुला दिया जाये, तो हजरत ईसा मसीह गड़बड़ कराने वाले, शांति भंग करने वाले, विद्रोह का प्रचार करने वाले दिखायी देंगे और कानून के शब्दों में ‘ख़तरनाक व्यक्तित्व’ माने जायेंगे! लेकिन हम उनकी पूजा करते हैं, उनका हमारे दिलों में बेहद आदर है, उनकी मूर्ति हमारे दिलों में आध्यात्मिकता का स्पंदन पैदा करती है। यह क्यों? यह इसलिए कि उनके प्रयत्नों का प्रेरक एक ऊंचे दर्जे का उद्देश्य था। उस युग के शासकों ने उनके उद्देश्यों को नहीं पहचाना, उन्होंने उनके बाहरी व्यवहार को ही देखा, लेकिन उस समय से लेकर इस समय तक उन्नीस शताब्दियां बीत चुकी हैं। क्या हमने तब से लेकर अब तक कोई तरक़्क़ी नहीं की? क्या हम ऐसी ग़लतियां दुहरायेंगे? अगर ऐसा हो तो इंसानियत की कुर्बानियां, महान शहीदों के प्रयत्न बेकार रहे और आज भी हम उसी स्थान पर हैं, जहां आज से बीस शताब्दियां पहले थे।
कानूनी दृष्टि से उद्देश्य का प्रश्न ख़ास महत्व रखता है। जनरल डायर का उदाहरण लीजिए, उन्होंने गोली चलायी और सैकड़ों निरपराध और शस्त्राहीन व्यक्तियों को मार डाला, लेकिन फौजी अदालत ने उन्हें गोली का निशाना बनाने के हुक़्म की जगह लाखों रुपये इनाम दिये। एक और उदाहरण पर ध्यान दीजिए, श्री खड्ग बहादुरसिंह ने, जो एक नौजवान गोरखा हैं, कलकत्ता में एक अमीर मारवाड़ी को छुरे से मार डाला। यदि उद्देश्य को एक तरफ रख दिया जाये, तो खड्ग बहादुरसिंह को मौत की सज़ा मिलनी चाहिए थी, लेकिन उसे कुछ वर्षों की सज़ा दी गयी और अवधि से बहुत पहले ही मुक्त कर दिया गया।
क्या कानून में कोई दरार रखनी थी जो उसे मौत की सज़ा नहीं दी गयी? या उसके विरुद्ध हत्या का अभियोग सिद्ध न हुआ? उसने भी हमारी तरह अपना अपराध स्वीकार किया था, लेकिन उसका जीवन बच गया और वह स्वतंत्र है। मैं पूछता हूं, उसे फांसी की सज़ा क्यों नहीं दी गयी? उसका कार्य नपा तुला था। उसने पेचीदा ढंग की तैयारी की थी। उद्देश्य की दृष्टि से उसका कार्य हमारे कार्य की अपेक्षा ज़्यादा घातक और संगीन था। उसे इसलिए बहुत ही नर्म सज़ा मिली, क्योंकि उसका मक़सद नेक था। उसने समाज की एक ऐसी जोंक से छुटकारा दिलाया जिसने कई एक सुंदर लड़कियों का ख़ून चूस लिया था। श्री खड्ग बहादुर को महज कानून की प्रतिष्ठा रखने के लिए कुछ वर्षों की सज़ा दी गयी। यह इस सिद्धांत की अवहेलना है कि-‘कानून आदमियों के लिए है, आदमी कानून के लिए नहीं है।’ इस स्थिति में क्या कारण है कि हमें भी वे रियायतें न दी जायें, जो श्री खड्ग बहादुरसिंह को मिली थीं, क्योंकि उसे नर्म सज़ा देते समय उसका उद्देश्य दृष्टि में रखा गया था, अन्यथा कोई भी व्यक्ति जो किसी दूसरे को क़त्ल करता है, फांसी की सज़ा से नहीं बच सकता। क्या इसलिए हमें आम कानूनी अधिकार नहीं मिल रहा है कि हमारा कार्य हुकूमत के विरुद्ध था या इसलिए कि इस कार्य का राजनीतिक महत्व है?
माई लार्ड, मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाये कि जो हुकूमत इन कमीनी हरकतों का सहारा लेती है, जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे बने रहने का हक़ नहीं। अगर वह कायम है तो आराजी तौर पर और हज़ारों बेगुनाहों का खून उसकी गरदन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता, तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थायी शांति स्थापित हो सकती है। आटे में संखिया मिलाना जुर्म नहीं, बशर्ते कि उसका उद्देश्य चूहों को मारना हो, लेकिन यदि उससे किसी आदमी को मार दिया जाये, तो वह क़त्ल का अपराधी बन सकता है। लिहाज़ा ऐसे कानूनों को, जो दलील पर आधारित नहीं और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध हैं, समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के विरुद्ध बड़े-बड़े श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों ने विद्रोह किया है।
हमारे मुक़दमे के तथ्य बिलकुल सरल हैं। 8 अप्रैल 1929 को हमने सेन्ट्रल असेम्बली में दो बम फेंके। उनके धमाके से चंद लोगों को खरोंचें आयीं। चैम्बर में हंगामा हुआ, सैकड़ों दर्शक और सदस्य बाहर निकल गये। कुछ देर बाद खा़मोशी छा गयी। मैं और साथी बी. के. दत्त खा़मोशी के साथ दर्शक गैलरी में बैठे रहे और हमने स्वयं अपने को गिरफ़्तारी के लिए प्रस्तुत किया। हमें गिरफ़्तार कर लिया गया। अभियोग लगाये गये और हत्या करने के अपराध में सज़ा दी गयी। सेशन जज ने स्वीकार किया कि यदि हम भागना चाहते तो भाग सकते थे। हमने अपना अपराध स्वीकार किया और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बयान दिया। हमें सज़ा का भय नहीं है, लेकिन हम नहीं चाहते कि हमें ग़लत समझा जाये। हमारे बयान से कुछ पैराग्राफ़ काट दिये गये हैं। यह वास्तविक स्थिति की दृष्टि से हानिकारक है।
समग्र रूप से हमारे वक्तव्य के अध्ययन से साफ़ प्रकट होता है कि हमारे दृष्टिकोण से हमारा देश एक नाजुक दौर से गुज़र रहा है। इस दशा में काफ़ी ऊंची आवाज़ में चेतावनी देने की ज़रूरत थी और हमने अपने विचारों के अनुसार चेतावनी दी है। संभव है, हम ग़लती पर हों, हमारे सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हमें अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त न दी जाये और ग़लत बातें हमारे साथ जोड़ी जायें। ‘इंक़लाब जि़ंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के संबंध में हमने जो व्याख्या अपने बयान में दी है, उसे उड़ा दिया गया है, हालांकि यह हमारे उद्देश्य का ख़ास भाग है। ‘इंक़लाब जि़ंदाबाद’ से हमारा वह उद्देश्य नहीं था जो आमतौर पर ग़लत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंक़लाब नहीं लाते, बल्कि इंक़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है और यही चीज़ थी जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंक़लाब का अर्थ पूंजीवाद और पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है।
मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया को समझे बिना किसी के संबंध में निर्णय देना उचित नहीं है। ग़लत बातें हमारे साथ जोड़ना साफ-साफ़ अन्याय है। यह चेतावनी बहुत आवश्यक थी। बेचैनी रोज़-रोज़ बढ़ रही है। यदि उचित इलाज न किया गया, तो रोग ख़तरनाक रूप ले लेगा। कोई भी मानवीय शक्ति इसकी रोकथाम न कर सकेगी। अब विश्वास है कि यदि सत्ताधारी शक्तियां ठीक समय पर सही कार्यवाही करतीं, तो फ्रांस और रूस की खूनी क्रांतियां न होतीं। दुनिया की कई बड़ी-बड़ी हुकूमतें विचारों के तूफान को रोकते हुए खून-ख़राबी के वातावरण में डूब गयीं। सत्ताधारी लोग परिस्थितियों के प्रवाह को बदल सकते हैं। हम चेतावनी देना चाहते थे। यदि हम कुछ व्यक्तियों की हत्या करने के इच्छुक होते, तो हम अपने मुख्य उद्देश्य में असफल हो जाते।
माई लार्ड, इस नीयत, भावना और उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए हमने कार्रवाई की और इस कार्रवाई के परिणाम हमारे बयान का समर्थन करते हैं। एक और नुक़्ता स्पष्ट करना आवश्यक है। यदि हमें बमों की ताक़त के संबंध में कोई ज्ञान न होता, तो हम पंडित मोतीलाल नेहरू, श्री जयकर, श्री जिन्ना जैसे सम्माननीय राष्ट्रीय व्यक्तियों की उपस्थिति में क्यों बम फेंकते? हम नेताओं के जीवन को किस तरह ख़तरे में डाल सकते थे? हम पाग़ल तो नहीं हैं और अगर पाग़ल होते, तो जेल में बंद करने के बजाय हमें पाग़लख़ाने में बंद किया जाता। बमों के संबंध में हमें निश्चित जानकारी थी। उसी के कारण ऐसा साहस किया। जिन बेंचों पर लोग बैठे थे, उन पर बम न फेंकना निहायत मुश्किल काम था। अगर बम फेंकने वाले सही दिमाग के न होते तो बम ख़ाली जगह की बजाय बेंचों पर गिरते। मैं तो कहूंगा कि ख़ाली जगह के चुनाव के लिए जो हिम्मत हमने दिखाई, उसके लिए हमें इनाम मिलना चाहिए। इन हालतों में, माई लार्ड, हम सोचते हैं, हमें ठीक तरह नहीं समझा गया। आपकी सेवा में हम सज़ाओं की कमी कराने नहीं आये बल्कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए आये हैं। हम तो चाहते हैं कि न तो हमसे अनुचित व्यवहार किया जाय और न ही हमारे संबंध में अनुचित राय दी जाये। सज़ा का सवाल हमारे लिये गौण है। "